व्यंग्य विमर्श

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पिछले दिनों फ़ेसबुक पर हमारा परिचय हुआ सुरेशकांत जी से। तारीख के हिसाब से दो हफ़ते पहले वरिष्ठ नागरिक हुये । दैनिक सन स्टार में नियमित व्यंग्य लिखते हैं सुरेश जी। ’अर्थसत्य’ नाम से जिसको हम बहु दिनों तक ’अर्धसत्य’ समझते रहे। समसामयिक घटनाओं पर रोज लिखते रहना अपने-आप में चुनौती है जिसको वे निबाहते रहते हैं। इसके अलावा प्रभात खबर में  ’कुछ अलग’ में उनका लेख हफ़्ते में एक के हिसाब से छपना शुरु हुआ कुछ दिन से।

बीच-बीच में सुरेश जी  ’व्यंग्य जगत के त्रिदेवों’  अपनी साजिशन उपेक्षा की बात कहानी सुनाते रहते थे। व्यंग्य में त्रिदेव कहकर किसको संबोधित करते हैं सुरेशजी  यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। नाम न बताने की शर्त पर उनके नाम मैं भी बता सकता हूं लेकिन जो बात सबको पता है उस पर संसय बना ही रहे तो अच्छा। वैसे व्यंग्य, जिसके लिये कहा जाता है कि वह विसंगति से साक्षात्कार करवाता है, अगर कोई  देव जैसी विभूति है तो अपने आप में यह बड़ी विसंगति है।  

वैसे बड़े-बुजुर्गों की इस तरह की इशारे-इशारे में की गयी बयानबाजी से नये लोगों और पाठकों भी इस बात की सीख मिलती रहती है कि कैसे  मन की भड़ास निकाली जाये ताकि साफ़ पता भी  चलता रहे कि किसके लिये लिखा गया है और किसी का नाम भी न लेना पड़े। 

बहरहाल पिछले दिनो  बिहार बोर्ड में ’नकल टापर’ के  किस्से पर सुरेश जी ने लेख लिखा ’पोडिकल  सेंंस में लल्लन टाप’। प्रभात खबर में छपे अपने इस लेख को साझा करते हुये सुरेश जी ने ’स्टार्टर’ के रूप में अपना एक संस्मरण पेश किया जिसमें उन्होंने ’व्यंग्य के बड़े कारोबारियों’ द्वारा अपनी उपेक्षा की बात फ़िर से  बयान की थी। मजे की बात जिनके खिलाफ़ वे सांकेतिक रूप से बिना नाम लिये लिखते रहते हैं  उन्होंने भी उनकी पीड़ा से सहमति व्यक्त करते शुभकामनायें दीं। नतीजा यह कि लेख नेपथ्य में चला गया और संस्मरण साझा होने लगा। मैंने उस पर टिप्पणी करते हुये लिखा :


"बढ़िया है। आप लिखिए। खूब लिखिये। संस्मरण अलग से लिखिए। रचना के साथ क्यों नत्थी करते हैं संस्मरण? रचना नेपथ्य में चली गयी। संस्मरण साझा हो रहा है। यह रचना के साथ अन्याय है। सादर।"
सुरेश जी ने इस सुझाव को  मानने की बात कहते हुये टिपियाया:
 आपने सही कहा अनूप जी| आगे ध्यान रखूँगा| धन्यवाद|
 मुझे सुरेश जी की प्रतिक्रिया इतनी अच्छी लगी कि फ़ौरन आनलाइन होकर उनका उपन्यास ’ब से बैंक’ मंगा लिया। इस उपन्यास का  सुरेश जी  अक्सर जिक्र करते रहते हैं अपनी बातचीत में, संस्मरण मे और जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से तब छपता था जब उसकी लाखों प्रतियां  छपतीं थीं।

उपन्यास आ भी जल्दी ही गया। कल जैसे ही यह आया वैसे ही इसको हम बांचना शुरु कर दिये। पठनीयता ऐसी कि एक कम नब्बे पेज का उपन्यास चौबीस घंटे में ही पढ गये। उपन्यास में बैंक के रोचक किस्से हैं। जब लिखा गया होगा यह उपन्यास तबसे अब तक बैंको का काम-काज का तरीका बहुत बदल गया है। बहुत सारा काम-काज आनलाइन बैंकिग से होने से होने लगा है लेकिन फ़िर भी वे सब कारोबार अभी भी होते हैं बैंको में जिनका जिक्र इस उपन्यास में हुआ है। वाकई एक बहुत अच्छे उपन्यास को पढ़ने से वंचित थे हम जो झटके में मंगाया गया और सटक से पढ़ लिया गया।

’ब से बैंक’ उपन्यास  सुरेशकांत जी  ने  ’न से नरेन्द कोहली’ को समर्पित किया है। जिस उमर में लिखा होगा उस उमर की लोकप्रियता नास्टेलजिया की तरह उनके मन में रहना सहज है। इसीलिये इसका जिक्र अक्सर करते हैं ’स’ से सुरेशकांत जी अपने लेखों में। साइज में उपन्यास का गुटका संस्करण टाइप लगने वाले उपन्यास का पहला संस्करण 2003 में छपा था। अभी तक वही चल रहा है। इसके पीछे मझे प्रकाशक की उदासीनता तो लगती ही है और किसी हद तक व्यंग्य के लोगों द्वारा इसका ठीक से इज्जत न देना भी रहा होगा। हमारे जैसे अनाम लेखक की भी किताब आते ही 200 के करीब  बिक गयी फ़िर एक ऐसा उपन्यास जो धारावाहिक छपा उसका 13 साल तक पहला संस्करण भी नहीं खपा यह अपने आप में हिन्दी  व्यंग्य की बड़ी विसंगति है। मेरी समझ में सुरेश जी को अपने इस उपन्यास का पेपर बैक संस्करण फ़िर से छपवाना चाहिये। फ़िर से विमोचन करना चाहिये। बैंकिग सेक्टर से जुड़े लोगों को तो यह उपन्यास जरूर पसंद आयेगा।

सुरेशकांत जी का यह उपन्यास पढ़ने के बाद उनसे भी सवाल पूछने का मन है कि ब से बैंक का खिलन्दड़ापन किस बैंक के   लॉकर में रख दिया उन्होंने। उस अदा वाले सुरेशकांत कोई और हैं क्या? 

उपन्यास के कुछ अंश नमूने के लिये आपके सामने पेश हैं:

1. इन कुत्तों को देखकर यह निष्कर्ष बडी आसानी से निकाला जा सकता था कि अपने देश में मनुष्यों का जीवन स्तर निम्न और कुत्तों का उच्च है।

2. यों तो गैर-कानूनी काम अपने देश में बुरा नहीं समझा जाता, और फ़लस्वरूप अनेकानेक गैर कानूनी काम यहां बाइज्जत संपन्न किये जाते हैं।

3. दफ़्तर में यूनियन इसलिये होती है कि ज कोई कर्मचारी मैनेजमेंट को गालियां सुना आये तो उसे मैनेजमेंट के षड़यंत्रों से बचाया जा सके।

4. सभ्य आदमियों को घृणा करने का शौक होता है। नित्य प्रति उन्हें कोई न कोई सामग्री ऐसी मिलती रहनी चाहिये, जिससे कि वे घृणा कर सकें, अन्यथा उनका स्वास्थ्य खराब होने का अंदेशा रहता है।

5. और यह सब मैनेजर की नाक के नीचे होता  था, जिससे कि अनुमान लगाया जा सकता है कि मैनेजर की नाक कितनी लंबी थी।

6. मैनेजमेंट का जो आदमी फ़ालतू हो जाता है, उसे मैनेजर बना दिया जाता है।

7. मैनेजमेंट की नजरों में वही कर्मचारी ज्यादा काम करता है जो दफ़्तर में देर तक बैठा रहे, फ़िर चाहे वह सारा समय हाथ पर हाथ धरे ही क्यों न बैठा रहे।

8. इतना सब होने के बावजूद वहां कोई फ़्राड नहीं होता था, तो यह ब्रांच के दुर्भाग्य के अलावा अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था।

9. ईमानदार वे इतने अधिक थे कि अध्यापिकाओं को जितना वेतन देते थे, ठीक उससे दुगुने पर ही हस्ताक्षर करवाते थे।

10. प्रेम खेत में नहीं पैदा होता और न ही ब्लैक में मिलता है। इसे पाने के लिये तो सिर तक देना पड़ता है और यही कारण है कि सच्चे प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने के लिये अपनी पत्नी का सिर तक दे डालते हैं।

उपन्यास पढ़ते हुये अक्सर रागदरबारी की याद आती रही। पहले पढ़े उपन्यास का सहज प्रभाव टाइप।  "रेजगारी आ जाती , तब तो उसकी पौ (जिस्म में वह जहां कहीं भी होती हो) बारह हो जाती"  पढकर रागदरबारी का अंश "और उसकी बाछें- वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों- खिल गयीं।" याद आ गया।

कुल मिलाकर 95 रुपये की कीमत में राजकमल प्रकाशन में उपलब्ध यह किताब बेहतरीन उपन्यास है। मजे-मजे में पढा  जाने वाला उपन्यास। और येल्लो किताब की कीमत और दस रुपये कम हो गयी और दाम हो गये 85 रुपये। खरीदिये और आनन्दित होइये। तब तक हम सुरेश जी की अगली किताब मंगाते है सुरेश कांत जी।








व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है। - परसाई

आज देश भर के अखबारों और पत्रिकाओं में धड़ाधड़ व्यंग्य लिखा जा रहा है। व्यंग्य जिसको परसाई जी स्पिरिट मानते थे अब विधा टाइप कुछ होने की तरफ़ अग्रसर है। पता नहीं विधा हुआ कि नहीं क्योंकि कोई गजट नोटिफ़िकेशन नहीं हुआ इस सिलसिले में। जो भी है इत्ता बहुत है कि व्यंग्य धड़ल्ले से लिखा जा रहा है।

व्यंग्य लिखा जा रहा है तो लेखक भी होंगे, लेखिकायें भी। कई पीढियां सक्रिय हैं लेखकों की। पीढियों से मतलब उमर और अनुभव दोनों से मतलब है। कई उम्रदराज लोगों ने हाल में ही लिखना शुरु किया है। कई युवा ऐसे हैं जिनकी लिखते-लिखते इत्ती धाक हो गयी है कि काम भर के वरिष्ठ हो गये हैं।

लिखैत  खूब हैं तो लिखैतों की अपनी-अपनी रुचि के हिसाब से बैठकी भी है। व्यंग्य लेखकों के अलग-अलग घराने भी हैं। जहां चार व्यंग्यकार मिल गये वो अपने बीच में से किसी को छांटकर सबसे संभावनाशी्ल व्यंग्यकार घोषित कर देता है। कभी मूड़ में आया तो किसी ने सालों से लिख रहे किसी दूसरे व्यंग्यकार को व्यंग्यकार ही मानने से इंकार कर दिया। इन्द्रधनुषी स्थिति है व्यंग्य की इस मामले में। कब कौन रंग उचककर दूसरे पर चढ बैठे किसी को पता नहीं।

सभी व्यंग्यकार अलग-अलग बहुत प्यारे लोग हैं लेकिन जहां चार व्यंगैत इकट्ठा हुये वहीं लोगों को व्यंग्य सेनाओं में बदलते देर नहीं लगती।अनेक व्यंग्य के चक्रवर्ती सम्राट हैं व्यंग्य की दुनिया में जिनका साम्राज्य उनके गांव की सीमा तक सिमटा हुआ है।

बहरहाल यह सब तो सहज मानवीय प्रवृत्तियां हैं। हर जगह हैं। व्यंग्य में भी हैं। इन सबके बावजूद  अक्सर बहुत बेहतरीन लेखन देखने को मिलता है। सोशल मीडिया के आने के बाद आम लोग भारी संख्या में लिखने लगे हैं । उनमें से कुछ बहुत अच्छा लिखते हैं। उनकी गजब की फ़ैन फ़ालोविंग है। उनके पढ़ने का इंतजार करते हैं लोग। सोशल मीडिया के लोगों के बारे में स्थापित व्यंग्यकारों की शुरुआती धारणा जो भी रही हो लेकिन उनको अनदेखा करना किसी के लिये संभव नहीं  है।

यह सब खाली इसलिये  लिये लिख रहे हैं ताकि लेख कुछ लंबा हो जाये और जरा वजन आता सा लगे बात में। कहना सिर्फ़ हम यह चाहते हैं कि व्यंग्य विमर्श नाम से यह ब्लॉग व्यंग्य के बारे में विमर्श के लिये शुरु कर रहे हैं। इसमें व्यंग्य पर खुले मन से विमर्श का प्रयास करने का मन है। पुराने और स्थापित लेखकों से लेकर नये से नये लेखक तक। छपे लेखन से लेकर सोशल मीडिया तक। खुले मन और खुले मंच से अपनी समझ से बात कहने का प्रयास करेंगे। और जो भी साथी इससे जुड़ना चाहेंगे उनका स्वागत है। कोशिश यह रहेगी कि अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ें।

व्यंग्य विमर्श का स्वरूप क्या होगा अभी तय नहीं लेकिन वह सब समय के साथ तय होता जायेगा। लेकिन अभी यह मन है कि इसमें समसामयिक व्यंग्य, व्यंग्य लेखकों की रचनाओं पर लेख, साक्षात्कार, व्यंग्य पर होने वाली गतिविधियों पर चर्चा, संस्मरण, आदि-इत्यादि सब पर लिखा जाये।

संभव है यह कोशिश असफ़ल रहे और कुछ दिन बाद यह ब्लॉग बंद करना पड़े लेकिन जैसा वेगड़ जी से सुना था एक बार - ’अच्छा काम करते  हुये असफ़ल रहना श्रेयस्कर है बुरा काम करते हुये सफ़ल होने के मुकाबले।’ तो ब्लॉग अगर कुछ दिन में बंद भी होता है तो उसके पहले कुछ व्यंग्य विमर्श करके डाल ही देंगे।

अथ प्रस्तावना।

दो दिन पहले सुभाष चन्दर जी ने अपने फ़ेसबुकिया वाल पर लिखा:

किसी विधा मे अच्छी रचनाओं की कमी पर चिन्ता न हो , खराब रचनाओ से बचने की ईमानदार कोशिश ना हो , जब समकालीनों से बेहतर लिखने की स्वस्थ प्रतिद्वनद्विता कम होने लगे , जब वरिष्ठ युवा को सिखाने से कतराने लगे, जब युवा वरिष्ठ से सीखने को हेठी समझने लगे ,उसे अपमानित करने लगे। ऐसे मे समझ जाना चाहिए कि यह उस विधा का पतन काल है। आज व्यंग्य मे यही सब होने लगा है ।व्यंग्य मे कभी तिकडी -चौकडी पर बात होती है तो कभी चूजे -मुर्गों पर, कभी पुरस्कार मुझे क्यों नहीं मिला, देर से क्यो मिला ? कभी चमचागीरी का महिमामंडन किया जाता है।कभी पुरस्कार / गोष्ठी /सम्मेलन मे भागीदारी के लिए आस्थाएं बदली जा रही हैं। क्षणिक स्वार्थों के लिए कीचड उछाल हो रही है।छिछली राजनीति का बाजार गर्म है।सब हो रहा है पर लेखन-अच्छे लेखन पर बात नही हो रही।

कई व्यंग्य लेखकों ने इस पर अपनी राय व्यक्त की। सुरेश कांत जी ने अपनी बात कहते हुये सुभाष जी से सवाल किया :


आपका उपदेश बहुत अच्छा है, पर व्यंग्यकार उसकी बत्ती बनाकर कान खुजाने के अलावा उसे और किस उपयोग में ला सकते हैं, जरा यह भी बता देते, तो व्यंग्य का बहुत भला हो जाता।


हरि जोशी जी ने लिखा :
 व्यंग्य के साथ न्याय किया जाये " यह सुझाव देते हुए सुभाश्चंदरजी आप स्वयं पक्षधर हो गए हैं , यह ठीक नहीं |यह किसी प्रलोभन के प्रभाव में तो नहीं ?सारे लेखकों को हताहत करने का हमारे एक मित्र के पास एक ही शस्त्र है "सपाटबयानी "|सब सपाटबयानी कर रहे हैं |"चलिए सपाटबयानी ही सही , पर गाली गलौच और सपाटबयानी में भी क्या बेहतर है ?क्या यह बतलायेंगे ?

 नाम नहीं लिखा लेकिन हरि जोशी जी ने गाली गलौच वाली बात कहते हुये ज्ञानजी हालिया उपन्यास ’हम न मरब’ की तरफ़ इशारा किया है। ज्ञानजी का यह उपन्यास अद्भुत उपन्यास है। हमने शुरुआती हिचक के साथ  पढ़ना शुर किया तो फ़िर खतम करके ही चैन आया। मुझे तो इसकी गालियां नहीं अखरीं । गालियों की बात पर राही मासूम रजा का अपने उपन्यास के पात्रों द्वारा गाली दिये जाने का तर्क याद आया -’मेरे पात्र अगर गाली बकते हैं तो क्या उनको गूंगा बना दूं उनकी जबान न लिखकर।’

 ’हम न मरब ’उपन्यास पर मेरी राय यह थी:

उपन्यास पढ़ने के पहले इसके बारे में हुई आलोचनाएं पढ़ने को मिली थीं। इसकी आलोचना करते हुए कहा गया कि इसमें गालियां बहुत हैं। लेकिन उपन्यास पढ़ते हुए और अब पूरा पढ़ लेने के बाद लग रहा है कि गालियों के नाम पर उपन्यास की आलोचना करना कुछ ऐसा ही है जैसे किसी साफ़ चमकते हुए आईने के सामने खड़े होकर कोई अपनी विद्रूपता और कुरूपता देखकर घबराते हुए या मुंह चुराते हुए कहे- 'ये बहुत चमकदार है। सब साफ-साफ़ दीखता है।'

उपन्यास पढ़ने के बाद मन है कि अब इसे दोबारा पढ़ेंगे। इस बार ठहर-ठहर कर। पढ़ते हुए सम्भव हुआ तो इसकी सूक्ति वाक्यों का संग्रह करेंगे। जैसे की आखिरी के पन्नों का यह सूक्ति वाक्य:

"महापुरुष के साथ रहने को हंसी ठट्ठा मान लिए हो क्या? बाप अगर महापुरुष निकल जाए तो सन्तान की ऐसी-तैसी हो जाती है।"

इस अद्भुत उपन्यास का अंग्रेजी और दीगर भाषाओं में अनुवाद भी होना चाहिए। 500-1000 की संख्या वाले संस्करण की हिंदी पाठकों की दुनिया के बाहर भी पढ़ा जाना चाहिए इस उपन्यास को।

बहरहाल यह दो बड़े बुजुर्गों की बात है। क्या ही बढिया हो कि  ’सपाटबयानी’ और  ’गाली गलौच’ के आलोचक  बुजुर्गों की एक बहस हो और लोग उनको आमने-सामने सुने , भले ही निष्कर्ष कुछ न निकले। :)

कल दिल्ली में ’व्यंग्य की महापंचायत’ हुई। उसकी रपट लिखते हुये अमेरिका से वापस लौटे हरीश नवलजी ने लिखा:
प्रिय दोस्तो कल रविवार को नई दिल्ली के हिंदी भवन में  व्यंग्य की महापंचायत में अध्यक्षता का अवसर मिला यानि सरपंच की भूमिका का दायित्व 'माध्यम' संस्था ने मुझे सौंपा   आजकल हिंदी गद्य-व्यंग्य विधा एक महत्वपूर्ण किंतु विकट दौर से गुज़र रही है ऐसे में ऐसी गोष्ठी का आयोजन विशेष कहा जाएगा ।
गोष्ठी में मुख्य अतिथि विख्यात लेखिका मैत्रयी पुष्पा थी जिन्होंने पीढ़ियों के अंतराल पर सार्थक वक्तव्य दिया।
 

माध्यम के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनूप श्रीवास्तव ने माध्यम इतिहास उल्लेखित किया ।दिल्ली के अध्यक्ष रामकिशोर उपाध्याय ने स्वागत किया ।
विशिष्ट अतिथियों में सुभाष चंदर थे जिन्होंने सामयिक हिंदी व्यंग्य परिवेश पर प्रवर्तक वक्तव्य दिया । आलोक पुराणिक ने श्रेष्ठ संचालन दायित्व निभाया ।
इस अवसर पर व्यंग्य और कविता पाठ भी हुए जिनमें विशिष्ट अतिथि बलराम , श्रवण कुमार उर्मिलिया ,अनिल मीत,नीलोतत्पल ,कमलेश पांडे,शशि पाण्डेय,वेद व्यथित, आरिफ़ अविश,सुमित प्रताप,अंजु निगम,अर्नव खरे,विनय विनम्र ,अश्विनी भटनागर आदि प्रखर रचनाकारों ने भाग लिया ।

अध्यक्षीय वक्तव्य में व्यंग्य लेखन की युवा पीढ़ी में  अतिशय प्रतिभा को रेखांकित करते हुए पुरस्कारों की राजनीति और प्रलोभन से बचते हुए सार्थक लेखन की ओर बढ़ते रहने और सद्भाव बनाए रखने पर बल दिया ।हाँ एक व्यंग्य का पाठ मैंने भी किया । शिल्पा श्रीवास्तव ,सुधांशु माथुर और शशि पाण्डेय ने आयोजन को सफल बनाने में पर्याप्त योगदान दिया।
युवा  पीढी नोट करे कि उसको पुरस्कारों की राजनीति में नहीं पड़ना है, प्र्लोभन से बचना है, सद्भाव बनाये रखना है। लेकिन हरीश जी ने यह नहीं बताया कि युवा पीढी यह सारे जरूरी काम किसके भरोसे छोड़ दे? :)

वन लाईनर

1.  बाबा रामदेव के घी में दस्ताना मिला - वैसे लोग चाहे जो कहें लेकिन इससे इतना तो तय हो गया कि बाबा का घी बड़ी सफाई से बनता है।--विनय कुमार तिवारी

2. इस दुनिया को कोई ईश्वर चला रहा है यह अंधविश्वास है। लेकिन अमेरिका इस दुनिया को कंट्रोल करता है यह हकीकत है। -Shambhunath Shukla

 3. कभी रघुराम राजन के जाने पर लुढ़क जाते हो...कभी ब्रिटेन के EU छोड़ने पर..प्रिय शेयर बाज़ार, इतना भी क्या SENSITIVE होना कि सारी दुनिया का तनाव पाल बैठो। -Neeraj Badhwar

4. असली नेता वही है जो संसार में कहीं भी हो चुनाव प्रचार ही करे।-Shashikant Singh


5. इसरो ने फिर रिकार्ड तोड़ दिया.पुराना समय होता तो यह सुनते ही इसरार की अम्मी ने अपने शैतान बच्चे को कूट देना था . -Nirmal Gupta

6. जो लोग कल बीस-तीस फ़ीसदी विदेशी निवेश पर ऊधम काटते थे,आज उन्होंने रक्षा में भी सौ फ़ीसदी निवेश मानकर पूरा सिर कड़ाही में डाल दिया है।वाकई#देश बदल रहा है।-संतोष त्रिवेदी

7.  पानी के बतासे का साइज मुंह से बड़ा होने पर सारा मजा उसकी टूट-फूट बचाने में ही खत्म हो जाता है।
यह अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे किसी बहुत बढ़िया रचना का स्तर खुद की अकल से ऊँचा होने पर होता है।- अनूप शुक्ल
  
मेरी पसंद

सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे औरसाल भर में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया.

जब कागज आ गया,तो उसकी फाइलें बना दी गयीं.प्रधानमंत्रीके सचिवालय से फाइल खाद्य-विभाग को भेजी गयी.खाद्य-विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और उसे अर्थ-विभाग को भेज दिया.

अर्थ-विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि-विभाग को भेज दिया गया.

बिजली-विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई-विभाग को भेज दिया गया.सिंचाई विभाग में फाइल पर पानी डाला गया.

अब वह फाइल गृह-विभाग को भेज दी गयी.गृह विभाग नेउसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइलराजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी.हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता.

जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूडकारपोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दियागया कि इसकी फसल काट ली जाये.इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पक कर फूड कार्पोरेशन के के पास पहुंच गयी.

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा-’हुजूर,हम किसानों को आप जमीन,पानी और बीज दिला दीजिये औरअपने अफसरों से हमारी रक्षा कर लीजिये,तो हम देश के लिये पूरा अनाज पैदा कर देंगे.’

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया-’अन्न की पैदावार के लिये किसान की अब कोई जरूरत नहीं है.हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं.’

कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया-’इस साल तो सम्भव नहीं हो सका ,पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.’

और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का आर्डर और दे दिया गया.

——हरिशंकर परसाई

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